लोकसभा का चुनावी बिगुल बज चुका है। सभी चुनावी पार्टियाँ अपने-अपने तरीकों से चुनाव रूपी युद्ध की तैयारियों में जुट गयीं हैं। चुनाव होने में अभी कुछ समय बाकी हैं ऐसे में सरगर्मी अगर राजनीतिक दलों के सिर चढ़ कर बोलने लगे तो यह साधारण सी बात है ।
विधानसभा चुनावों की मनोदशा के लिहाज से आगामी चुनाव एक संघर्षपूर्ण स्थिति को बयां करती है। क्यों कि विधान सभा चुनावों को आगामी लोक सभा चुनाव के सेमीफाइनल के रूप में देखा जा रहा था। 8 दिसम्बर को जम्मू-कश्मीर के अतिरिक्त शेष पाँच विधान सभाओं के चुनाव परिणाम प्राप्त हो गये थे और जम्मूकश्मीर की विधान सभा का चुनाव परिणाम 28 दिसम्बर, 2008 को प्राप्त हुआ। इन चुनावों में चार राज्यों में कांग्रेस और दो राज्यों में भाजपा की सरकार बनी। राजस्थान और दिल्ली में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा।
इन चुनावीं परिणामों ने कई मिथक तोड़े और पूर्वधारणाओं को ख़ारिज किया है। हर बार की तरह इस बार भी तथाकथित चुनावी पंडितों एवं विश्लेषकों के पूर्वानुमान ध्वस्त हुए हैं। विधान सभा के चुनावी परिणामों में भले ही 3-2 से कांग्रेस का बोलबाला रहा हो, लेकिन लोकसभा चुनावों के लिहाज से भाजपा और काँग्रेस के बीच एक काटें की टक्कर थी। दिल्ली में चुनाव मुम्बई हमलों के पश्चात सम्पन्न हुए। किन्तु आतंकवाद एवं आन्तरिक सुरक्षा का मुद्दा मतदाताओं पर ज्यादा प्रभाव नहीं डाल सका। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के नेतृत्व में सरकार का एजेण्डा ही कामयाब हुआ। इससे यह पता चलता कि मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत छवि एवं सरकार के अच्छे कामकाज ने सत्ता विरोधी पहलू की अवराधणा को नकार दिया है और इससे यह निष्कर्ष सामने आया कि विधान सभा चुनावों में आतंकवाद , महँगाई, आर्थिक संकट जैसे राष्ट्रीय मुद्दों के बज़ाय मतदाता स्थानीय मुद्दों पर ज्यादा जोर देते नज़र आयें हैं।
बसपा की सोशल इंजीयरिंग की गणित उ0प्र0 के बाहर ज्यादा कामयाब होती नहीं दिखती है लेकिन विधान सभा के चुनावी दगंल में बसपा ने भाजपा और कांग्रेस की नींद उड़ा दी थी। अब दोनों ही दलों को भय है कि बसपा उन्हें कई सीटों पर नुकसान पहुंचा सकती है। इसी के चलते बसपा के साथ तालमेल के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों ही आतुर दिखाई दे रहे हैं।
एक बार फिर से कयासबाजी का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा है और नए सिरें से राजनीतिक पंडित पांच साल तक देश की दिशा तय करने वालों के दलों के भविष्य का अनुमान लगाने में जुट गए हैं। लेकिन यह तय है कि आन्तरिक गुटबाजी एवं संगठन के स्तर पर कुप्रबन्धन की शिकार पार्टियों की पराजय निश्चित है। राजनीति की शतरंज पर मोहरे बिछाकर बाज़ी कौन मारेगा, ये तो अब वक्त ही बतायेगा।
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