Tuesday, June 2, 2009

आतंक पर अर्द्धविराम

आतंक पर विराम लगाने से पहले यह समझ लेना जरूरी होगा कि उसका अस्तित्व कितना शेष है। बार-बार मिटता उसका अस्तित्व लोगों के जहन में हमेशा डर की एक लहर छोड़ जाता है। फिर चाहे लादेन हो, दाऊद हो या प्रभाकरण जैसे कई अन्य लोग। जिनकी कड़ी हमेशा से अनसुलझे पहलुओं को बयां करती रही है। आतंक के ये प्रतीक महज व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं रहते, बल्कि एक स्थिति के बाद वे विचारधारा में बदल जाते है। दिक्कत यह है कि ऐसे लोग जितने खतरनाक जिंदा रहते हुए होते है, मरने के बाद उससे भी ज्यादा खतरनाक हो जाते हैं। इसलिए श्रीलंका सरकार इस बात पर इतराए या राहत का सांस ले कि लिट्टे खत्म हो गया है तो यह उसकी गलतफहमीं होगी। कोई गुस्सा या विद्रोह दशकों तक महज किसी व्यक्ति के नेतृत्व या उकसावें (जैसा कि श्रीलंका सरकार प्रभाकरण पर आरोप लगाती रही है) की बदौलत जिंदा नही रह सकता। इसके पीछे मूलभूत कारण होते है। श्रीलंका में तमिल और सिंहलियों के बीच ऐतिहासिक मन मुटाव की नींव अंग्रेजों ने रखी थी। उन्होंने फूट डालो और राज करों की नीति पर चलकर दुनिया के अनेक भागों में लम्बे समय तक शासन किया। भारत और पाकिस्तान के बीच नफरत का स्थाई भाव इसी फार्मूलें की देन है। भारत के विभाजन के लिए भी यही नीति जिम्मेंदार थी। अंग्रेज हिंदुओं और मुसलमानों को एक – दूसरे के विरोध में खड़ा करने में सफल हो गए थे।
श्रीलंका में तमिलों और सिंहलियों के बीच भी यही किया गया । 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अंग्रेजो ने बड़े पैमाने पर तमिलों को तमिलनाडु से ले जाकर श्रीलंका के उत्तर पूर्वी इलाके में बसाया और उनसे रबर व चाय बागान की खेती शुरू करवाई। यह बात श्रीलंका के पारंपरिक निवासियों सिंहली समुदाय को अच्छी नहीं लगी। सिंहलियों ने शुरूआत से ही इसका विरोध किया। इस आग को लगाने और भड़काने वाले अंग्रेज थे। वजह साफ थी, तमिलों और सिहंलियों को आपस में लड़ाना, जिससे ये कमजोर पड़ जाएं और फिर शासन किया जाए। बहरहाल, यहाँ यह जान लेना भी जरूरी होगा कि सिंहली भी मूल रूप से भारतीय ही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि सिंहली ऐसे लोग हैं जो अशोक महान के बौद्ध धर्म प्रचार के दौरान बिहार, आज के बंगाल और उत्कल इलाके से श्रीलंका गए थे। चूकिं ये लोग भारत के बिल्कुल पूर्वी और पूर्वोत्तर इलाके से जाकर सुदूर दक्षिण स्थित श्रीलंका में जा बसे और वहाँ भी दक्षिण इलाके में अपना डेरा जमाया, इस कारण धीरे-धीरे सिंहलियों का भारत से संबंध टूटता गया और शताब्दियां गुजरते-गुजरते वे स्थानीय समुदाय के रूप में उभरकर सामने आ गए। चूकिं ये लोग श्रीलंका के बिल्कुल दूसरे छोर जाकर बसे थे इसलिए इनकी बोली-भाषा, खानपान में से धीरे-धीरे भारतीय रंग उतरता गया और स्थानीय रंग गाढ़ा होकर मूल बनता गया। आज भी सिंहली और मैथिल भाषा में बहुत कुछ समान है। सिंहलियों और तमिलों में जल्द ही मत पैदा हो गए। सिंहली बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं तो तमिल हिंदू धर्म के। सिंहली खानपान और संस्कृत के मामलों में भी तमिलों से काफी हद तक अलग है, लेकिन यह अलगाव शायद इतने बड़े असंतोष का कारण नहीं बनता अगर अंग्रेजों ने तमिलों को सिंहलियों को आपस में टकराया नही होता। जब अंग्रेज भारत की तरह श्रीलंका को भी आजाद कर चले गए तो उनके जाते ही तमिल और सिंहली मनमुटाव ऐतिहासिक राजनीतिक सीमाओं को लांघते हुए तात्कालिक हितों की अनदेखी का कारण बन गया। इसे वीभत्स रूप दिया स्वार्थी राजनीति ने। श्रीलंका के आजाद होने के बाद धीरे-धीरे तमिलों से ऐतिहासिक बदले चुकाने का सिलसिला शुरू हुआ और सिंहली सरकारों ने जानबूझकर तमिलों का स्वाभिमान कुचलने के हर कदम पर उन्हें नीचा दिखाया।
स्थिति यह हो गई कि 1971-72 में श्रीलंकाई सेना और स्थानीय पुलिस तथा प्रशासन में बस अपवाद के तौर पर भी तमिल बचे। आगे चलकर सेना और पुलिस में अपवाद के तौर पर भी तमिल नही बचे। उन्ही दिनो एक छात्र यूनियन के नेता प्रभाकरण ने तमिल न्यू टाइगर्स नामक संगठन खड़ा किया, जो आगे चलकर लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम बना। इसमें कोई दो राय नहीं कि जैसे-जैसे तमिलों पर सरकारी कहर टूटा, यह संगठन मजबूत से मजबूत होता गया। धीरे-धीरे प्रभाकरण ने एक भूभाग पर समानांतर सरकार खड़ी कर ली और विरोधियों की हत्या का सिलसिला शुरू कर दिया। राजीव गाँधी के अलावा श्रीलंका के अनेक नेताओं का जघन्य हत्याओं का जिम्मेदार लिट्टे ही है। पूरे दुनिया में बसे तमिलों से इस संगठन को भारी समर्थन मिलता रहा है। ऐसे में यह मान लेना कि प्रभाकरण के रहने से लिट्टे का हमेशा के लिए खात्मा हो जाएगा तो यह एक सोचनीय विषय है । इसे रोकने के लिए श्रीलंका सरकार को तमिलों के साथ हो रहे अन्याय को खत्म करना होगा तभी लिट्टे का खात्मा हो सकेगा।

Wednesday, April 1, 2009

आउटसोर्सिंग पर रोक से भारत को झटका

दुनिया कितनी बदल चुकी है, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता कि पहले आर्थिक मंदी का प्रभाव लोगों पर क़हर बनकर टूटा, उसके बाद आउटसोर्सिंग पर रोक लगने से आई0टी0 क्षेत्र के लोगों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। पहले आर्थिक संकट ने विकसित देशों को विकासशील देशों पर सीधे निर्भर होने के लिये मजबूर कर दिया था, पर अब आउटसोर्सिंग ने विकासशील देशों की तो, कमर ही तोड़ दी।
अमेरिका बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने से पहले दुनिया को वैश्वीकरण तथा आर्थिक उदारीकरण का उपदेश देता था। विश्वव्यापी मंदी के बावजूद भारत में तमाम अवसर मौजूद थे”,ये मानना था, स्टाफिंग सेवायें देने वाली ग्लोबल फर्म ‘मैनपावर’ का। लेकिन मंदी के कहर ने तो विकसित और विकासशील देशों की तस्वीर को आईना दिखा दिया।
भारत तथा दूसरे विकासशील देश जितने ही अपने दरवाजे दूसरों के लिए खोलते जाते थे, उतनी ही वैश्वीकरण तथा आर्थिक उदारीकरण की मांग अमेरिका की ओर से बढ़ती जाती थी। वही अमेरिका अपने दरवाजे दुनिया के लिए बंद करता जा रहा है। अभी तक अमेरिका तथा पश्चिम की अनेक कंपनियां अपना कुछ तकनीकि काम विकासशील देशों की कंपनियों को सौंप देती थी क्योंकि विकसित देशों के मुकाबले यहां श्रम सस्ता है। इससे भारत के, विशेष सूचना टेक्नोलॉजी से जुड़े, युवाओं को बहुत लाभ हो रहा था जिन्हें बड़े पैमाने पर अच्छे रोज़गार मिले हुए थे। लेकिन इससे कहीं ज्यादा फ़ायदा अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों की कंपनियों को था जो सस्ते श्रम के आधार अपने क्षेत्र में प्रतियोगी बनी रहती थीं और अपने यहां भी रोज़गार पैदा करती थीं लेकिन बराक ओबामा ने आउटसोर्सिंग पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा अमेरिकी संसद के संयुक्त अधिनेशन में कर दी है। अब आउटसोर्स करने वाली कंपनियों के करों में रियायत नहीं मिलेगी लेकिन आर्थिक मंदी से जुझता अमेरिका अधिक तनख्वाहों पर अपने लोगों को रोज़गार देगा, उससे ये कंपनियां दुनिया में कितनी प्रतियोगी बनी रहेंगी, यह कहना मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि बुश प्रशासन पर आउट सोर्सिंग खत्म करने का दबाव नहीं था उसने अन्त में कदम पीछे हटा लिए थे। बहरहाल, ओबामा का यह फैसला भारतीय युवाओं के आई.टी. स्वप्न का एक तरह से अंत है क्योंकि ज्यादातर आई.टी. कंपनियां अमेरिकी कंपनियों के लिए आउटसोर्सिंग करती है। भारतीय उद्योग जगत को अब सूचना-तकनीक का देश के अंदर अधिक विस्तार करने की । उसने अंत मे अपने कदम पीछे हटा लिए थे। बहरहाल, ओबामा का यह फैसला भारतीय युवाओं के आई.टी. स्वप्न का एक तरह से अंत है क्योकिं ज्यादातर आई.टी. कंपनियां अमेरिकी कंपनियो के लिए आउटसोर्सिंग करती हैं। भारतीय उधोग जगत को अब सूचना तकनीक का देश के अंदर अधिक विस्तार करने की नई रणनीति पर सोचना होगा तथा साथ ही रोजगार में नए तथा आकर्षक विकल्पों पर भी विचार करना होगा। फिलहाल यह भारत के युवाओं के लिए झटका है जिससे उबरने में उन्हे समय लगेगा।

Wednesday, March 4, 2009

बचाव में सिर्फ टिप्पणी पेश करता पाक

जिस किसी ने भी लाहौर बम धमाकें का लाइव वीडियों देखा उसके तो मन में सिर्फ एक ही सवाल बार-बार कौंधने लगा कि क्या यही है पाकिस्तान की सुरक्षा व्यवस्था ?????
अभी तक तो आतकंवादी सिर्फ़ मंदिर, मस्जिद ,गुरद्वारों या होटलों को ही अपना निशाना बनाकर लोगों के दिलों में अपने दहशत की एक छाप छोड़ जाते थे। पर अब उन्होनें तो क्रिकेट की तरफ़ अपना रुख़ कर लिया है। उनके लिये तो लोगों की ज़िन्दगियों से खेलना तो मानो एक ख़िलौना बन गया हो। आख़िर कब तक ऐसे ही आतंक का साया लोगों के दिलों में दहशत बनकर गर्जता रहेगा ? आख़िर कब तक पाकिस्तान अपने सायें में आतकं को जन्म देता रहेगा और फिर अपने आप को बचाने के लिए दूसरों पर टिप्पणी कसता रहेगा ।
अब तो सब कुछ लोगों के सामने है पाकिस्तान को शर्मशार करने वाली श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर हुए हमले की घटना का दृश्य भी सभी ने देखा। लेकिन इस पर भी पाकिस्तान को अपने बचाव में टिप्पणी कसने का मौका तो मिल गया है।

Sunday, March 1, 2009

आर्थिक स्थिति का आकड़न

पिछले दो महीनों के दौरान आर्थिक मंदी ने शेयर बाजार का नक्शा ही बिगाड़ कर रख दिया है। शेयर बाजार में चल रही उथल-पुथल के कारण निवेशकों को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। पिछले दो महीनो में बाजारों में गिरावट के चलते निवेशकों को औसतन प्रत्येक 5 मिनट में 100 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है।
लेकिन वर्ष 2008 की तुलना में यह गिरावट काफी कम है क्योंकि पिछले वर्ष शेयर बाजार में निवेशकों ने हर दो मिनट में 100 करोड़ रुपये की चोट खायी थी और पूरे साल कुल 40 लाख करोड़ रुपये से हाथ धोना पड़ा था। जबकि इस वर्ष के बीते दो माह के दौरान अब तक 2 लाख 82 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है। यानी हर 5 मिनट में 100 करोड़ डूब जाते हैं।
इन आंकड़ो से पता चलता हैं कि वित्तीय संकट के कारण पिछले साल शेयर बाजार काफी तेजी से नीचे आया था। इस वजह से 2008 में स्टॉक मार्केट में रजिस्टर्ड सभी कंपनियों का कुल बाजार पूंजीकरण 72 लाख करोड़ रुपए से घटकर 31 लाख करोड़ रुपए रह गया। जबकि 2009 में यह और घटकर 28 लाख 60 हजार करोड़ रुपए के स्तर पर पहुंच गया है। आंकड़ो के अनुसार 2008 में कुल 246 दिनों के करोबारी सत्र में औसतन रोज़ाना 5 घंटे 35 मिनट का कामकाज हुआ। इन सब से तो यह साफ़ हो जाता है कि भारत की आर्थिक स्थिति काफ़ी लचर हो गई है।

Tuesday, February 17, 2009

आतंक का नया चेहरा

आखिर कब जागेगी हमारी आवाम, आखिर कब होगा सबेरा, हम किस-किस को जिम्मेंदार कहें इस आतंक का । भारत में जहाँ एक ओर हिन्दू , मुस्लिम, सिख, ईसाई को भाई-भाई का दर्जा दिया जाता है वहीं दूसरी ओर मुस्लिम कौम को श़क की नज़र से देखा जाता है। यदि पकड़ा जाने वाला आतंकी मुस्लिम है तो सभी मुस्लिम को शक के दायरें से देखतें हैं। यदि पकड़ा जाने वाला व्यक्ति हिन्दू होता है तो उसे आतंकवादी क्यों नहीं कहा जाता हैं। सभी धर्म हमें अमन और शान्ति की प्रेरणा देते है। जब कि आतंकी का ना तो कोई जाति होती है और ना हीं उसका कोई धर्म । भारत हमेशा से शान्तिप्रिय और भाईचारें का देश रहा है पर अब ना तो भारत शान्तिप्रिय देश रह गया है और ना हीं भाईचारें का। अब भाईचारा और शान्ती तो हमारे राजनेताओं की भेंट चढ़ गया है।

Friday, February 6, 2009

राजनीति में फाइनल का आग़ाज

लोकसभा का चुनावी बिगुल बज चुका है। सभी चुनावी पार्टियाँ अपने-अपने तरीकों से चुनाव रूपी युद्ध की तैयारियों में जुट गयीं हैं। चुनाव होने में अभी कुछ समय बाकी हैं ऐसे में सरगर्मी अगर राजनीतिक दलों के सिर चढ़ कर बोलने लगे तो यह साधारण सी बात है ।
विधानसभा चुनावों की मनोदशा के लिहाज से आगामी चुनाव एक संघर्षपूर्ण स्थिति को बयां करती है। क्यों कि विधान सभा चुनावों को आगामी लोक सभा चुनाव के सेमीफाइनल के रूप में देखा जा रहा था। 8 दिसम्बर को जम्मू-कश्मीर के अतिरिक्त शेष पाँच विधान सभाओं के चुनाव परिणाम प्राप्त हो गये थे और जम्मूकश्मीर की विधान सभा का चुनाव परिणाम 28 दिसम्बर, 2008 को प्राप्त हुआ। इन चुनावों में चार राज्यों में कांग्रेस और दो राज्यों में भाजपा की सरकार बनी। राजस्थान और दिल्ली में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा।
इन चुनावीं परिणामों ने कई मिथक तोड़े और पूर्वधारणाओं को ख़ारिज किया है। हर बार की तरह इस बार भी तथाकथित चुनावी पंडितों एवं विश्लेषकों के पूर्वानुमान ध्वस्त हुए हैं। विधान सभा के चुनावी परिणामों में भले ही 3-2 से कांग्रेस का बोलबाला रहा हो, लेकिन लोकसभा चुनावों के लिहाज से भाजपा और काँग्रेस के बीच एक काटें की टक्कर थी। दिल्ली में चुनाव मुम्बई हमलों के पश्चात सम्पन्न हुए। किन्तु आतंकवाद एवं आन्तरिक सुरक्षा का मुद्दा मतदाताओं पर ज्यादा प्रभाव नहीं डाल सका। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के नेतृत्व में सरकार का एजेण्डा ही कामयाब हुआ। इससे यह पता चलता कि मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत छवि एवं सरकार के अच्छे कामकाज ने सत्ता विरोधी पहलू की अवराधणा को नकार दिया है और इससे यह निष्कर्ष सामने आया कि विधान सभा चुनावों में आतंकवाद , महँगाई, आर्थिक संकट जैसे राष्ट्रीय मुद्दों के बज़ाय मतदाता स्थानीय मुद्दों पर ज्यादा जोर देते नज़र आयें हैं।
बसपा की सोशल इंजीयरिंग की गणित उ0प्र0 के बाहर ज्यादा कामयाब होती नहीं दिखती है लेकिन विधान सभा के चुनावी दगंल में बसपा ने भाजपा और कांग्रेस की नींद उड़ा दी थी। अब दोनों ही दलों को भय है कि बसपा उन्हें कई सीटों पर नुकसान पहुंचा सकती है। इसी के चलते बसपा के साथ तालमेल के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों ही आतुर दिखाई दे रहे हैं।
एक बार फिर से कयासबाजी का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा है और नए सिरें से राजनीतिक पंडित पांच साल तक देश की दिशा तय करने वालों के दलों के भविष्य का अनुमान लगाने में जुट गए हैं। लेकिन यह तय है कि आन्तरिक गुटबाजी एवं संगठन के स्तर पर कुप्रबन्धन की शिकार पार्टियों की पराजय निश्चित है। राजनीति की शतरंज पर मोहरे बिछाकर बाज़ी कौन मारेगा, ये तो अब वक्त ही बतायेगा।

Tuesday, February 3, 2009

चंद्रयान मिशन का टशन


चाँद पर पहुँचने की ख्वाहिश किसके दिल में उज़ागर नहीं होती है। चाँद तो मानव मन के लिए हमेशा से कौतूहल का विषय रहा है। साहित्यकार इसे सौंदर्य का प्रतीक मानते है तो वैज्ञानिक इसे अन्य ग्रहों उपग्रहों की तरह रहस्य और रोमांच से भरी एक अलग दुनिया। इसी दुनिया की खोज में भारत ने 22 अक्टूबर 2008 को सुबह 6 बज़कर 21 मिनट पर एक इतिहास रचा। भारत ने अपने चंद्रयान-1 मिशन को पंख लगाकर उसे एक नयी दिशा दे दी। इसी के साथ भारत - रूस, अमेरिका, ज़ापान चीन आदि की क़तार में ऐसे छठे देश के रूप में आ खड़ा हुआ है जिनके चाँद पर मिशन गए हैं। परन्तु भारत एक और ऐतिहासिक शिखर के साथ ऐसा चौथा देश भी बन गया जिसका परचम चाँद पर लहराया।
भारत अपने चाँद पर पहुँचने के सपने को पूरा कर अन्य देशों के लिए चर्चा, चिंता और चौकानें का सबब बन चुका है। भारत की इस ऐतिहासिक कामयाबीं पर चीन, अमेरिका, पाकिस्तान जैसें अन्य कई देश चकित हुए हैं। भारत की इस सफलता पर चीनी अंतरिक्ष विज्ञानी सवाल करने में मश़गूल हैं। शायद उनकों यह अवगत कराना होगा कि हाल ही में दुनिया की जानी-मानी टेक्नोलाजी मैनेजमेंट फर्म फ्यूट्रान द्वारा जारी ग्लोबल स्पेस कंप्टीटिवनेस इंडेक्स कई प्रमुख वर्गों (देश की सरकार, मानव पूंजी और इंडस्ट्री) के आधार पर तैयार की गई है। इन आधारों के द्वारा तैयार की गई रैकिंग में भारत, चीन से अंशमात्र ही पीछे है। 17.88 अंको के साथ चीन चौथें जब कि 17.52 अंको के साथ भारत पांचवें स्थान पर है। लेकिन अन्य कई प्रमुख वर्गों में भारत ने चीन के सपने को तार-तार कर दिया है। प्रमुख वर्गों के आधार मिलें अंको में देश की सरकार पर मिलें 10.58 अंक के साथ भारत चीन से एक पायदान ऊपर है। भारत चौथें पायदान पर है, जब कि चीन 10.44 अंक के साथ पाँचवें पायदान पर है। इसी तरह स्पेस इंडस्ट्री में भी चीन भारत से एक पायदान नीचे है। इस वर्ग में भारत 4.65 अंक के साथ मजबूती से चौथें स्थान पर जमा है जब कि चीन को 4.33 अंको के साथ पाँचवें स्थान पर ही संतोष करना पड़ रहा है। भारत ने अंतरिक्ष पर अपने पैर जमाने के लिए बड़े-बड़े सपने देखें हैं। इस मिशन के लिए भारत ने अपनी कोशिशों को चीन से अधिक प्रभावशाली बनाया है। क्यों कि चंद्रयान-1 की लागत चीन के पहले मून मिशन की तुलना में आधी से भी कम है। शीर्ष दस देशों के अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर तैयार की गई सूची में अमेरिका 90 से ज्यादा सर्वाधिक अंको के साथ सभी वर्गों में अव्वल है। परन्तु भारत की यह गौरवपूर्ण कामयाबी, अमेरिका के लिए गौर करने का विषय बन चुका है कि कहीं अमेरिका चाँद के बारें अपनी जानकारियाँ औंर भविष्य की योजना को लेकर पिछड़ तो नहीं जायेगा। यह सवाल अमेंरिका के लिए बल्कि पाकिस्तान और जापान के लिए पहेली बन चुका है। भारत के इस अभियान को लेकर पाकिस्तान के सभी अख़बारों व टीवी चैनलों में विभिन्न कोणों से इसका विस्त्रत विश्लेषण भी किया गया। पाकिस्तान में एक अखबार के माध्यम से पाकिस्तानी सरकार को आगाह किया गया और उसे एक लंबी फेहरिस्त सौंपी गई कि अब पाकिस्तान सरकार इस नींद से जाग जायें अन्यथा भारत विज्ञान और तकनीकि के मामलें में पाकिस्तान से इतना
आगे निकल जायेगा कि वह लाचार होकर घुटनों के बल बैठ देखता रह जायेगा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत की इस ऐतिहासिक कामयाबी पर सभी देश उसे अनेकों बधाईयाँ दे रहे हैं परन्तु सभी देश नींद से जागते हुए भारत की इस कामयाबी को सबक सीखाने वाला मान रहे हैं। भारत का यह सबक शायद ही अब कोई भुला पाए।

Monday, February 2, 2009

बच्चों का बदलता स्वरूप

अपराधों की राजधानी कही जाने वाली दिल्ली में अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं। लगातार बढ़ रहे अपराधों से कोई भी व्यक्ति अपने आप को सुरक्षित नहीं समझ पा रहा है। चोरी, डकैती, हत्या, बलात्कार जैसे कई बड़े अपराध दिल्ली की सड़को पर रोज़ाना हो रहे हैं। शाम होते ही लोंग अपने दफ्तरों से निकल कर घरों की तरफ़ भागना उचित समझते हैं।
लगातार बढ़ रहे अपराधों में एक किरदार है छोटे मासूम बच्चों का। भूख से बिलखते ये बच्चें अपना पेट भरने के लिए सड़को पर आवारा घूम कर भीख़ माँगते है या फिर अपराधों की तरफ़ अपना रुख कर लेते हैं। ये छोटे बच्चें अपना पेट भरने के लिए बड़े-बड़े अपराधों में शामिल तो हो जाते हैं परन्तु ये अपनी ज़िन्दगी को पूर्ण रूप से समझ नहीं पाते हैं। मासूमों के जिन हाथों में खिलौने और किताबें होनी चाहिए, उन हाथों में या तो हथियार या फिर भीख़ माँगने का कटोरा होता है। इन बच्चों को तो लगता है कि इनके हाथों से किस्मत की रेखा पूर्ण रूप से मिट चुकी है। अब इन बच्चों का भविष्य तो वर्तमान के पन्नों में सिमट कर रह गया है। जब हमने उन मासूम बच्चों से पूछा कि तुम एक दिन में कितना पैसा कमा लेते हों, तो उनका जवाब था कि “जब हमें भूख लगती है तब हम भीख़ माँग कर अपना पेट भर लेते हैं। हमें एक दिन में 15-20 रुपये मिल जाते हैं।”
दिल्ली की सड़को पर घूम रहे इन बच्चों के लिए प्रशासन ने क्या प्रावधान बनायें हें शायद ये नहीं जानते हैं। परन्तु ये बच्चें ऐसे ही तंग गलियों या सड़कों पर भटक कर अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं। यह देखकर तो ऐसा लगता है कि सरकार ने बालश्रम के लिए कानून तो बना दिये हैं। पर शायद इस कानून ने मासूमों को दर-दर भटकने पर मज़बूर कर दिया है।