आतंक पर विराम लगाने से पहले यह समझ लेना जरूरी होगा कि उसका अस्तित्व कितना शेष है। बार-बार मिटता उसका अस्तित्व लोगों के जहन में हमेशा डर की एक लहर छोड़ जाता है। फिर चाहे लादेन हो, दाऊद हो या प्रभाकरण जैसे कई अन्य लोग। जिनकी कड़ी हमेशा से अनसुलझे पहलुओं को बयां करती रही है। आतंक के ये प्रतीक महज व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं रहते, बल्कि एक स्थिति के बाद वे विचारधारा में बदल जाते है। दिक्कत यह है कि ऐसे लोग जितने खतरनाक जिंदा रहते हुए होते है, मरने के बाद उससे भी ज्यादा खतरनाक हो जाते हैं। इसलिए श्रीलंका सरकार इस बात पर इतराए या राहत का सांस ले कि लिट्टे खत्म हो गया है तो यह उसकी गलतफहमीं होगी। कोई गुस्सा या विद्रोह दशकों तक महज किसी व्यक्ति के नेतृत्व या उकसावें (जैसा कि श्रीलंका सरकार प्रभाकरण पर आरोप लगाती रही है) की बदौलत जिंदा नही रह सकता। इसके पीछे मूलभूत कारण होते है। श्रीलंका में तमिल और सिंहलियों के बीच ऐतिहासिक मन मुटाव की नींव अंग्रेजों ने रखी थी। उन्होंने फूट डालो और राज करों की नीति पर चलकर दुनिया के अनेक भागों में लम्बे समय तक शासन किया। भारत और पाकिस्तान के बीच नफरत का स्थाई भाव इसी फार्मूलें की देन है। भारत के विभाजन के लिए भी यही नीति जिम्मेंदार थी। अंग्रेज हिंदुओं और मुसलमानों को एक – दूसरे के विरोध में खड़ा करने में सफल हो गए थे।
श्रीलंका में तमिलों और सिंहलियों के बीच भी यही किया गया । 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अंग्रेजो ने बड़े पैमाने पर तमिलों को तमिलनाडु से ले जाकर श्रीलंका के उत्तर पूर्वी इलाके में बसाया और उनसे रबर व चाय बागान की खेती शुरू करवाई। यह बात श्रीलंका के पारंपरिक निवासियों सिंहली समुदाय को अच्छी नहीं लगी। सिंहलियों ने शुरूआत से ही इसका विरोध किया। इस आग को लगाने और भड़काने वाले अंग्रेज थे। वजह साफ थी, तमिलों और सिहंलियों को आपस में लड़ाना, जिससे ये कमजोर पड़ जाएं और फिर शासन किया जाए। बहरहाल, यहाँ यह जान लेना भी जरूरी होगा कि सिंहली भी मूल रूप से भारतीय ही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि सिंहली ऐसे लोग हैं जो अशोक महान के बौद्ध धर्म प्रचार के दौरान बिहार, आज के बंगाल और उत्कल इलाके से श्रीलंका गए थे। चूकिं ये लोग भारत के बिल्कुल पूर्वी और पूर्वोत्तर इलाके से जाकर सुदूर दक्षिण स्थित श्रीलंका में जा बसे और वहाँ भी दक्षिण इलाके में अपना डेरा जमाया, इस कारण धीरे-धीरे सिंहलियों का भारत से संबंध टूटता गया और शताब्दियां गुजरते-गुजरते वे स्थानीय समुदाय के रूप में उभरकर सामने आ गए। चूकिं ये लोग श्रीलंका के बिल्कुल दूसरे छोर जाकर बसे थे इसलिए इनकी बोली-भाषा, खानपान में से धीरे-धीरे भारतीय रंग उतरता गया और स्थानीय रंग गाढ़ा होकर मूल बनता गया। आज भी सिंहली और मैथिल भाषा में बहुत कुछ समान है। सिंहलियों और तमिलों में जल्द ही मत पैदा हो गए। सिंहली बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं तो तमिल हिंदू धर्म के। सिंहली खानपान और संस्कृत के मामलों में भी तमिलों से काफी हद तक अलग है, लेकिन यह अलगाव शायद इतने बड़े असंतोष का कारण नहीं बनता अगर अंग्रेजों ने तमिलों को सिंहलियों को आपस में टकराया नही होता। जब अंग्रेज भारत की तरह श्रीलंका को भी आजाद कर चले गए तो उनके जाते ही तमिल और सिंहली मनमुटाव ऐतिहासिक राजनीतिक सीमाओं को लांघते हुए तात्कालिक हितों की अनदेखी का कारण बन गया। इसे वीभत्स रूप दिया स्वार्थी राजनीति ने। श्रीलंका के आजाद होने के बाद धीरे-धीरे तमिलों से ऐतिहासिक बदले चुकाने का सिलसिला शुरू हुआ और सिंहली सरकारों ने जानबूझकर तमिलों का स्वाभिमान कुचलने के हर कदम पर उन्हें नीचा दिखाया।
स्थिति यह हो गई कि 1971-72 में श्रीलंकाई सेना और स्थानीय पुलिस तथा प्रशासन में बस अपवाद के तौर पर भी तमिल बचे। आगे चलकर सेना और पुलिस में अपवाद के तौर पर भी तमिल नही बचे। उन्ही दिनो एक छात्र यूनियन के नेता प्रभाकरण ने तमिल न्यू टाइगर्स नामक संगठन खड़ा किया, जो आगे चलकर लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम बना। इसमें कोई दो राय नहीं कि जैसे-जैसे तमिलों पर सरकारी कहर टूटा, यह संगठन मजबूत से मजबूत होता गया। धीरे-धीरे प्रभाकरण ने एक भूभाग पर समानांतर सरकार खड़ी कर ली और विरोधियों की हत्या का सिलसिला शुरू कर दिया। राजीव गाँधी के अलावा श्रीलंका के अनेक नेताओं का जघन्य हत्याओं का जिम्मेदार लिट्टे ही है। पूरे दुनिया में बसे तमिलों से इस संगठन को भारी समर्थन मिलता रहा है। ऐसे में यह मान लेना कि प्रभाकरण के रहने से लिट्टे का हमेशा के लिए खात्मा हो जाएगा तो यह एक सोचनीय विषय है । इसे रोकने के लिए श्रीलंका सरकार को तमिलों के साथ हो रहे अन्याय को खत्म करना होगा तभी लिट्टे का खात्मा हो सकेगा।
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